मित्रों,
आप सबके अपार स्नेह और ईश्वर की कृपा से मैं आज भारतीय जनता पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष हूँ | परन्तु अंतर्मन से मैं आज भी अहमदाबाद के नारणपुरा वार्ड का बूथ मंत्री और पार्टी का एक सामान्य कार्यकर्ता हूँ | जनता और कार्यकर्ता से संवाद के बिना मेरा मन संतुष्ट नहीं होता है | पार्टी के विभिन्न कार्यक्रमों, अपने पाक्षिक व्यक्तिगत संवाद और सोशल मीडिया के द्वारा तो मैं आप सभी के संपर्क में हूँ | इस कड़ी को आगे बढाते हुए मैं आज यह वेबसाईट आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहा हूँ | इस साईट में मेरे कार्यक्रमों के चित्र, विडियो, समाचार तो होंगे ही साथ में ब्लॉग के ज़रियें मैं समय-समय पर अनेक विषयों पर अपनी व्यक्तिगत सोंच से भी आपको अवगत करुंगा |
मैं अपना पहला ब्लॉग मेरे आदर्श और सच्चे राष्ट्रभक्त वीर सावरकर जी के चरणों में अर्पित करता हूँ |
राजनीतिक दृष्टि से अभिशप्त और सामजिक दृष्टि से बिखरे भारत ने 18वीं शताब्दी के प्रारंभ मे अपने इतिहास का नवीन युग देखा था | कहा जाता है कि अतृप्त आकांक्षाओं की पूर्ती हेतु मानव बार-बार जन्म ग्रहण करता है | यदि इस कथन में सत्यता है तो वीर सावरकर के जन्म और जीवन कहानी इस कहावत को पूर्णत: चरितार्थ करती प्रतीत होती है | 1883 में ऐसी दो महत्वपूर्ण घटनाएं घटित हुई थी, जिन्होंने इस वर्ष को एक नवीन महत्व प्रदान कर दिया | सामाजिक पुनरुत्थान के नेता महर्षि दयानंद अपनी दैहिक यात्रा पूर्ण कर रहे थे और महान क्रांतिदूत भारत माता के सपूत वासुदेव बलवंत फड़के ने भारतीय गणराज्य का स्वप्न अपने नेत्रों में संजोए मातृभूमि से दूर अंतिम साँस ली थी | उसी वर्ष वीर सावरकर का जन्म 28 मई को रात्रि दस बजे महाराष्ट्र के नासिक जिले में स्थित भगुर नगर में हुआ था | लगता है धार्मिक क्रांति के जनक महर्षि दयानंद और राष्ट्रभक्ति के प्रेरणापुत्र श्री फड़के की दिव्य ज्योति का संगम ही वीर सावरकर के रूप में अवतरित हुआ था | 1902 में जब वह मैट्रिक के छात्र थे तो 22 जनवरी 1902 में ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया की मृत्यु होने पर भारत मे होने वाली शोक सभाओं का विरोध करते हुए वीर विनायक ने उद्घोष किया था कि शत्रु देश की रानी की मृत्यु पर हम शोक क्यों मनाएं ?
किशोर अवस्था में ही वीर सावरकर ने “मित्र मेला” नामक संगठन की स्थापना की थी, जिसे बाद में “अभिनव भारत” की संज्ञा मिली | 22 अगस्त 1906 को जब वीर सावरकर पुणे में कॉलेज के छात्र थे तो वहां उन्होंने विदेशी वस्त्रों की होली जलाकर अपने क्रांति धर्म की आभा दर्शायी थी | उनके इस अभियान को लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने भी आशीर्वाद प्रदान किया था | प्रबुद्ध स्नातक विनायक सावरकर ने एडवर्ड के राज्यारोहण के अवसर पर भारत में होने वाले उत्सवों का विरोध करते हुए उद्घोष किया थे कि “दासता का उत्सव क्यों मना रहे हो ?” 9 जून 1906 को पंडित श्याम जी कृष्ण वर्मा द्वारा प्रदत्त शिवाजी छात्रवृत्ति प्राप्त कर उच्च शिक्षा प्राप्ति हेतु ब्रिटेन गए थे | वहां के स्वतंत्र वायु मंडल में इंडिया हाउस को अपनी गतिविधियों का केंद्र स्थल बनाया था | वहीँ उन्होंने भारत मे ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध 1857 की सशस्त्र क्रांति का इतिहास ग्रन्थ लिखा था जिसे 1857 के “स्वतन्त्रया समर” की संज्ञा प्रदान की थी | इस ग्रन्थ के छपने से पहले ही अंग्रेज सत्ता ने इसे प्रतिबंधित घोषित कर दिया था | 1906 में वीर सावरकर लिखित इस ग्रन्थ का अंग्रेजी अनुवाद येन – केन प्रकरण हालैंड में छपा था| इसका दूसरा संस्करण भीकाजी कामा और लाला हरदयाल सरीखे प्रखर राष्ट्रभक्तों ने छपवाया था | जबकि तीसरा संस्करण सरदार भगत सिंह और उनके सहयोगियों द्वारा गुप्त रूप से छपवाया गया था | यह ग्रन्थ क्रांतिकारियों के लिए गीता सरीखा प्रेरक हो गया था |
1 जुलाई 1909 को युवा क्रांति धर्मी मदन लाल धींगरा ने कर्जन वायली को गोली मार हत्या कर दी गयी थी | इस प्रसंग मैं वीर सावरकर का एक लेख लन्दन टाइम्स में प्रकाशित हुआ था | 23 मार्च 1920 को बिर्टिश सरकार की आँखों में खटक रहे वीर सावरकर को लन्दन के विक्टोरिया स्टेशन पर बंदी बना लिया गया था | उनके बड़े भाई गणेश सावरकर को देशभक्ति के पावन अपराध में बंदी बनाकर अंडमान कालापानी के क्रूर कारागार में भेजा जा चुका था | जबकि छोटे भाई नारायण सावरकर भी वहीँ बंदी जीवन बिता रहे थे |
1 जुलाई 1920 को लन्दन से भारत लाये जाने के दौरान वीर सावरकर ने सघन पहरे वाले जहाज़ से सीवर होल के रास्ते से पलायन कर 8 जुलाई 1820 को सागर संतरण कर गोलियों की बौछारों के बीच फ्रांस के तट पर पहुँच कर अपने साहस व संकल्प का अद्भुत कार्य किया था | फ्रांस की भूमि पर सावरकर जी की गिरफ्तारी को हेग के अंतर्राष्ट्रीय न्यायलय मे चुनौती दी गयी परन्तु न्याय नहीं मिल पाया |
जस-तस वीर सावरकर को भारत लाकर उनके विरुद्ध अभियोग चलाया गया और उन पर जैक्सन वध षड़यंत्र और ब्रिटिश सरकार का तख्ता पलटने के आरोप लगाए गये | 24 दिसम्बर 1920 को एक मामले मे आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई | जबकि दूसरे मामले में भी 30 जनवरी 1922 आजीवन कारावास का दंड सुनाया गया | स्वतंत्रता संग्राम में दो आजीवन कारावास की सजा पाने वाले एक मात्र क्रांतिकारी वीर सावरकर को अंडमान के भयानक सैल्युलर कारागार में पहुचाया गया | इस कारागार के सात खंड थे | उसकी दूसरी मंजिल की 134 न. की कोठरी में सावरकर जी को बंदी बनाकर रखा गया था | वीर सावरकर को नारियल की रस्सी बनाने का काम तो दिया ही जाता था उन्हें तेल निकालने के लिए बैल की तरह कोल्हू में भी जोता जाता था| किन्तु उस यातनायुक्त जीवन में भी सावरकर जी की काव्य प्रतिभा का प्रस्फुरण हुआ और उन्होंने कारागार की दीवारों पर काव्य पंक्तियों का अंकन कर महाकाव्य का सृजन कर अनुपम साहस का परिचय दिया | ऐसा कष्ट सहिष्यु राजनीतिक बंदी और साहित्यकार, समग्र विश्व में वीर सावरकर के अलावा न कोई हुआ है और न ही शायद कोई होगा | लगभग 13 वर्ष के पश्चात अनेक भारतीय राष्ट्रभक्तों के प्रयास से वीर सावरकर अंडमान से भारत लाए गए | पहले उन्हें अलीपुर जेल तथा बाद में रत्नागिरी कारागार में बंदी बनाकर रखा गया | रत्नागिरी में ही वीर सावरकर ने अपने महान ग्रन्थ “हिंदुत्व” को लिखा | रत्नागिरी से उन्हें यरवदा जेल मे स्थानांतरित किया गया और यहीं से वह 6 जनवरी 1928 को कारावास से मुक्त हुए किन्तु साथ ही उन पर प्रतिबन्ध भी लगा दिया गया | अन्तत: बैरिस्टर जमुनादास मेहता आदि के प्रयास से 20 मई 1936 में हुए अखिल भारत हिन्दू महासभा के अहमदाबाद अधिवेशन में वह इस संगठन के अध्यक्ष पद पर आसीन हुए | वह लगातार सात वर्ष तक हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने जाते रहे | हिन्दू महासभा अध्यक्ष के रूप मे उन्होंने तुष्टिकरण की नीति तथा भारत विभाजन के प्रयासों का डटकर विरोध किया | सावरकर जी भारत की अखंडता के प्रबल पक्षधर थे | एक राष्ट्र, एक संस्कृति भाव तथा राष्ट्रीयता ही उनका महामंत्र था | अपने जीवन में सतत संघर्ष करते और अवरोधों को झेलते इस महान राष्ट्रभक्त ने जब नेताजी सुभाष चन्द्र बोस से 22 जून 1942 भेट की तो उन्होंने ने ही नेताजी को जापान जाकर आजाद हिन्द सेना की कमान सँभालने का परामर्श दिया | 25 अगस्त 1947 को वीर सावरकर ने सावरकर सदन मुंबई मे भगवा ध्वज के साथ तिरंगा राष्ट्रध्वज भी फहराया था | उन्होंने उस प्रसंग में पत्रकारों से हुई वार्ता मे कहा था मुझे स्वराज्य प्राप्त होने की प्रसन्नता है परन्तु भारत खंडित होने की पीड़ा भी है |
मई 1952 को पुणे की विशाल सभा में अभिनव भारत संगठन को उसका उद्देश्य भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति पूर्ण हो जाने पर भंग कर देने की घोषणा भी कर दी थी | 1957 मे देश की राजधानी दिल्ली मे आयोजित 1857 के भारतीय स्वाधीनता संग्राम के शताब्दी समारोह में वह मुख्य वक्ता रहे थे | इस अवसर पर रामलीला मैदान में सुविशाल जन समूह को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था यदि हमारा राष्ट्र यदि बुद्ध की पूजा करना चाहता है तो उसे युद्ध की भी सिद्धता रखनी होगी | यहीं पर उन्होंने सैनिकीकरण पर बल देते हुए युवा पीढ़ी से सेना में योगदान करने का आह्वान किया था | एक महान राष्ट्रभक्त के साथ साथ सावरकर जी एक अद्वितीय समाज सुधारक भी थे, कम ही लोग जानते हैं कि अस्पृश्यता के खिलाफ लड़ाई लड़ने वाले वह पहले व्यक्ति थे | उन्होंने मंदिरों में दलित समाज के प्रवेश के लिए काफी संघर्ष किया, जिसके लिए उन्हें अपने समाज और जाति का विरोध भी झेलना पड़ा |
बढती आयु बिगड़ रहे स्वस्थ्य के कारण वीर सावरकर ने स्वतः सक्रिय राजनीति से संन्यास ले कर 2 फरवरी 1966 को उन्होंने मृत्यु पर्यंत उपवास का निर्णय लिया | इस दौरान उन्होंने औषधि और उपचार से सर्वथा इन्कार कर दिया, बीच – बीच में पानी के घूट पीकर कर 26 फरवरी 1966 को वह अपनी नश्वर काया का परित्याग कर अनन्त यात्रा पर प्रस्थान कर गये | अपने सपने की धरोहर ही वे राष्ट्र को सौप गए है | उनका सपना उन्ही के शब्दों मे यह था |“मेरे सपनो का भारत एक ऐसा लोकतंत्रीय राज्य है, जिससे सभी धर्मो और मत-मतातंरों के अनुयायियों के साथ पूर्ण समानता का व्यवहार किया जायेगा | जहां पर किसी को दुसरे पर अधिपत्य का अवसर नहीं रहेगा”| वीर सावरकर विज्ञान और प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देने के पक्षधर थे | स्वतंत्र भारत में भी वीर सावरकर सत्ताधीशों द्वारा उपेक्षित ही रहे | यहाँ तक कि श्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के समय संसद में उनके तैलचित्र के लगाने का एक राजनीतिक विचार के अनुयायिओ ने विरोध ही किया था |
मित्रों आज भी जब मैं अपने आदर्श वीर सावरकर जी के बारे में अंग्रेजो द्वारा दी गयी यातनाओं और स्वतंत्र भारत में उनकी उपेक्षा के बारे में सोचता हूँ तो आँखों में आंसू आ जाते और मन रौद्र हो जाता है | यदि स्वतंत्र भारत के राजनैतिक कर्णधारों ने सावरकर जी के जीवन और उनकी सोंच से शिक्षा लेकर राष्ट्र निर्माण किया होता तो आज देश इस विषम परिस्थित से नहीं गुजर रहा होता | आइये मेरे साथ संकल्प करे कि हम सब वीर सावरकर के सपनों के भारत के निर्माण के सहभागी बनेगे |
सावरकर जी एक महान राष्ट्रभक्त, अद्वतीय स्वतंत्रता सेनानी, अद्भुत समाज सुधारक, महान लेखक, भाषा शास्त्री, अनुकर्णीय युगद्रष्टा और हिन्दू संस्कृति के प्रखर समर्थक थे | करोड़ों राष्ट्रभक्तों में ढूँढने पर ही शायद एक सावरकर मिले |