My views | Oct 27, 2022
मातृभाषा में शिक्षा के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के संकल्प को साकार करने की दिशा में इस महीने की 16 तारीख को एक ऐतिहासिक अध्याय लिखा गया। इस दिन मध्य प्रदेश सरकार ने हिंदी में मेडिकल शिक्षा की शुरुआत की। आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष में यह तिथि भारत की शिक्षा व्यवस्था के पुनर्जागरण के रूप में याद रखी जाएगी। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था, ‘भारतीय भाषाओं में पढ़े विज्ञानी और विशेषज्ञ देश के सच्चे सेवक होंगे और वे विदेशी नहीं, बल्कि आम जनता की भाषा बोलेंगे। जो ज्ञान वे प्राप्त करेंगे, वह आम लोगों की पहुंच के अंदर होगा।’
मोदी सरकार द्वारा प्रवर्तित नई शिक्षा नीति बापू के इसी सोच के अनुरूप है, जिसमें प्राथमिक से लेकर तकनीकी और मेडिकल शिक्षा तक को मातृभाषाओं में उपलब्ध कराने का प्रयास किया जा रहा है। इसके अंतर्गत अपनी भाषा में एमबीबीएस की पढ़ाई शुरू करने वाला मध्य प्रदेश देश का पहला राज्य बना है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत प्रधानमंत्री मोदी का लक्ष्य मेडिकल, इंजीनियरिंग और कानून की उच्च शिक्षा सभी भारतीय भाषाओं में उपलब्ध कराना है। इस दिशा में मोदी सरकार पूरी निष्ठा और समर्पण के साथ प्रयास कर रही है।
मोदी जी के नेतृत्व में आज देश आत्मनिर्भरता की राह पर बढ़ रहा है। ऐसे में हमें इस शब्द के मर्म को समझना आवश्यक है। आत्मनिर्भर शब्द सिर्फ उत्पादन और वाणिज्यिक संस्थाओं के लिए ही नहीं, बल्कि भाषाओं के बारे में भी उतना ही महत्व रखता है। आत्मनिर्भर भारत का सपना तभी साकार होगा, जब हमारी भाषाएं मजबूत होंगीं। इसे ध्यान में रखते हुए ही सरकार ने नई शिक्षा नीति में भारतीय भाषाओं में शिक्षा पर विशेष बल दिया है। आज आठ भाषाओं तमिल, तेलुगु, मलयाली, गुजराती, मराठी, बांग्ला, हिंदी और असमिया में इंजीनियरिंग की पढ़ाई के प्रयास हो रहे हैं। नीट और यूजीसी द्वारा आयोजित परीक्षाएं भी 12 भाषाओं में देने की व्यवस्था की गई है।
19वीं शताब्दी में दादाभाई नौरोजी ने अंग्रेजों द्वारा भारतीय धन-संपदा विदेश ले जाने को ‘ड्रेन आफ वेल्थ’ कहा था। आज 21वीं सदी में स्थिति ‘ड्रेन आफ ब्रेन’ यानी प्रतिभा पलायन की हो गई है। यदि हमारे बच्चों को मातृभाषा में शिक्षा के अवसर मिलेंगे तो ‘ब्रेन ड्रेन’ की यही स्थिति ‘ब्रेन गेन’ में बदलने लगेगी। भारतीय भाषाओं में शिक्षा से उनका दिमाग किसी विदेशी भाषा का गुलाम होने के बजाय अपनी भाषा में अभिव्यक्ति और अनुसंधान शक्ति को बढ़ाते हुए अपना विकास कर सकेगा। गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा था, ‘भारतीय संस्कृति एक विकसित शत दल कमल की तरह है, जिसकी प्रत्येक पंखुड़ी हमारी प्रादेशिक भाषाएं हैं। किसी भी पंखुड़ी के नष्ट होने से कमल की शोभा नष्ट हो जाएगी। मैं चाहता हूं कि प्रादेशिक भाषाएं रानी बनकर प्रांतों में विराजमान रहें और उनके बीच हिंदी मध्यमणि बनकर विराजे।’
देश की सभी भाषाएं हमारी अपनी भाषाएं हैं। भारत और भारतीयता की जड़ों में इन भाषाओं की महान परंपरा है। भाषा ही व्यक्ति को अपने देश, संस्कृति और मूल के साथ जोड़ती है। ऐसे में हिंदी को लेकर भी हमें किसी पूर्वाग्रह के बिना यह समझना चाहिए कि हिंदी का किसी स्थानीय भाषा से कोई मतभेद नहीं है। हिंदी को लेकर अक्सर यह भ्रांति फैलाई जाती है कि यह स्थानीय भारतीय भाषाओं की विरोधी है। इसमें जरा भी सच्चाई नहीं। हिंदी भारत की राजभाषा है और सभी भारतीय भाषाओं की सखी है। मेरा मानना है कि हिंदी और सभी भारतीय भाषाओं को थोड़ा लचीला होना पड़ेगा। यदि अन्य भाषाओं से कोई अंतर आता है तो उससे परहेज करने के स्थान पर उसे अपनी भाषा में समाहित करने का प्रयास होना चाहिए। इससे सभी भाषाओं में अंतर्विरोध दूर होकर परस्पर समागम के साथ उनका विकास हो सकेगा।
कुछ लोगों में अंग्रेजी को लेकर श्रेष्ठताबोध का ऐसा भाव ऐसा है कि अंग्रेजी जानने वाले व्यक्ति को अमूमन ज्ञानी मान लिया जाता है। सच यह है कि किसी भी भाषा ज्ञान का बौद्धिक क्षमता से कोई संबंध नहीं होता। भाषा केवल अभिव्यक्ति का माध्यम होती है। यदि मातृभाषा में शिक्षा मिले तो बौद्धिक क्षमता बेहतर ढंग से निखरती है। अन्य भाषा में शिक्षा होने पर बौद्धिक क्षमता का संपूर्ण लाभ व्यक्ति को नहीं मिल पाता, क्योंकि कोई भी बच्चा अपनी मातृभाषा में ही सबसे अच्छा चिंतन कर सकता है।
जब प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा से इतर किसी और भाषा में होती है तो उसके मौलिक चिंतन के विकास में बाधा उत्पन्न होती है। आज हम शोध, विज्ञान और कला इत्यादि में अपनी क्षमता का सिर्फ पांच प्रतिशत दोहन कर पा रहे हैं। वर्तमान प्रयासों से जब शिक्षा मातृभाषा में होगी और देश अपनी संपूर्ण बौद्धिक क्षमता का उपयोग कर पाएगा तो आत्मनिर्भर भारत की यात्रा को महत्वपूर्ण बल मिलेगा। इसीलिए दुनिया भर के शिक्षाविदों ने मातृभाषा में शिक्षा को महत्वपूर्ण माना है, क्योंकि सोच, विश्लेषण, अनुसंधान और निष्कर्ष की प्रक्रिया हमारा मन मातृभाषा में ही संपादित करता है।
भाजपा को जब भी अवसर मिला है, उसने भारतीय भाषाओं को आगे बढ़ाने का काम किया है। गुलामी का कालखंड बीतने के बाद भी हमारे सत्ता प्रतिष्ठानों में लंबे समय तक भारतीय भाषाओं को लेकर हीनता की ग्रंथि पनपती रही। देश के नेता विदेशी मंचों पर अंग्रेजी में भाषण देते थे, परंतु अटल जी ने संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में भाषण देकर भारतीय भाषा को गौरव प्रदान किया। आज प्रधानमंत्री मोदी भी अटल जी की इस परंपरा को आगे बढ़ाते हुए वैश्विक मंचों पर हिंदी में भाषण देते हैं। हिंदी में भाषण देने से वैश्विक स्तर पर तो भारतीय भाषा को पहचान मिलती ही है, भारतीयों के आत्मविश्वास में भी वृद्धि होती है।
आज मोदी जी के नेतृत्व में भारतीय भाषाओं में उच्च शिक्षा की नई राहें खुल रही हैं, जो कि हमारी भाषाओं के विकास में तो लाभप्रद होंगी ही, इससे छात्रों की अनुसंधान क्षमता में भी गुणात्मक वृद्धि होगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि युगों-युगों तक भारत अपनी भाषाओं को संभालकर और संजोकर रखेगा तथा उन्हें लचीला एवं लोकोपयोगी बनाते हुए हम उनके विकास को नए आयाम देते रहेंगे।